अष्टावक्र गीता-दोहे -11

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*अष्टावक्र गीता*-11 लोलुपता जिसके लिए,इंद्र आदि हिय होय। हर्षित कभी न कर सके,योगी-मन को सोय।। पाप-पुण्य-अनुभूति से, ब्रह्म-वेत्ता दूर। धूम्र-गगन-संगति नहीं,भले उड़े भरपूर।। अपने में ही विश्व को,देखे पुरुष महान। वर्तमान ...

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