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सारहीन धन ( कविता) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु मूर्ख समझते हैं दुनिया में, धन ही सुख का मूल है। निर्धन जग में व्यर्थ है आया, समझें उसको शूल हैं।। दीन-दुखी हैं बोझ ...