अपनापन

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ढूंढती रही खुद को ताउम्र, कितने अपनों के सपनों में, कहीं भी थाह नहीं मिलती, कहीं भी पनाह नहीं मिलती, तलाशती रही मृगतृष्णा में, हर रिश्तों के रेगिस्तान में,  स्नेह नीर ...

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