उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद

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गोदान--मुंशी प्रेमचंद सहसा उसने मातादीन को अपनी ओर आते देखा। क़साई कहीं का, कैसा तिलक लगाये हुए है, मानो भगवान् का असली भगत है। रँगा हुआ सियार! ऐसे बाह्मन को पालागन ...

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