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ये रोज़ की दौड़ जिसे हम ज़िन्दगी कहते हैं, क्यों आराम नहीं अपने ही चौबारों में ! ये ऊँची इमारतें और इनमे कैद हम, मजबूर कर रखा है अपने ही औज़ारों ...