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सजाते रहते अपने तन को तरह-तरह की इत्रों से स्वार्थ में मदान्ध होकर बैठें ढूंढकर खामियां दूजे में कोसों दूर हो रहें प्रतिपल सगे-संबंधियों और मित्रों से क्षीण कर प्रकृति को ...