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रसिक संपादक मुंशी प्रेम चंद 6) उसने अनुमति की प्रतीक्षा न की। तुरंत पोथा खोलकर एक कविता सुनाने लगी। शर्माजी को ऐसा मालूम होने लगा, जैसे कोई भिगो-भिगोकर जूते मार रहा ...