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शहरी जीवन : विकास या पतन

शहरी जीवन : विकास या पतन




शहरी जीवन, कदाचित ही इसे विकास का पर्याय कहा जा सकता है अन्यथा प्रकृति एवं संस्कृति की दृष्टि से यह निश्चय ही विनाश की ओर अग्रसर होते दिखाई दे रहा है। इसके बारे में बात करने से पूर्व आपको पहले के शहरी जीवन, ग्रामीण जीवन एवं प्राचीनकालीन जीवन को भली भांति समझना होगा।

निश्चय ही यह विकास भौतिक एवं स्वयंभू की दृष्टि से हुआ हो परंतु संस्कारिक, सामाजिक, व्यवहारिक एवं नैतिक दृष्टि में हुए अपूर्णीय क्षति के कारण इसे पतन की ओर बढ़ते हुए भली भांति देखा जा सकता है। मानव बस तब मानव नहीं बना जब वह जंगलों से बाहर निकलकर घरों में रहने लगा, उसका परिवार बना, समाज बना। मानव तब मानव बना जब उसने सभी जीवों के प्रति प्रेम एवं दयाभाव रखा! मानव तब मानव बना जब उसने "वसुधैव कुटुंबकम्" जैसे भाव को अपने हृदय में जीवित रखा, जब वो पूरी तत्परता से, पूरी मनुष्यता से किसी दूसरे मनुष्य या अन्य जीव की मदद करने को सदैव तैयार खड़ा होता और अपनी सक्षमता के अनुरूप उसकी सहायता करता। और मानव तभी तक मानव रहेगा जब तक उसके भीतर ये मानवीय गुण जीवित रहेंगे, अगर कोई अपनी आत्मा को मार कर केवल शरीर का विकास करना चाहता है तो वह कदाचित ही विकास कहने योग्य हो, क्योंकि इसका परिणाम कल्पना से भी अधिक विध्वंसक हो सकते हैं।

प्राचीनकालीन मानव जो जंगल में गुफाओं में रहता था, पेड़ो से फल तोड़कर खाता था, वृक्षों की छाल पहनता था, कच्चा मांस खाता था। उसने विकास की ओर कदम बढ़ाया जिसमे आग बेहद सहायक हुई, वह मांस भूनकर खाने सीख गया, आग के प्रयोग से कई हथियार एवं सुरक्षा के हेतु अस्त्र बनाए। विकास का क्रम आगे बढ़ा, मनुष्य ने पहिए की खोज की, उसकी सहायता से दूर दूर से सामान सरलता से लाने सीखा और मिट्टी के बर्तन बनाया। धीरे धीरे खेती आदि सीखा गया। उसने परिवार के साथ रहना सीखा और कबीले बसते गए, जहां समाज का निर्माण हुआ।

कालांतर में कबीलों ने विकास के क्रम पर आगे बढ़ते हुए ग्रामीण जीवन अस्तित्व में आया। जहां मानवीय नैतिक मूल्य सबसे अधिक महत्व दिया गया, मगर एक समाज का दूसरे समाज से परस्पर संबंध नहीं बन सका। फिर ग्रामों ने विकसित होकर प्राचीन शहरों का निर्माण हुआ, जहां भौतिकता एवं भोग को अधिक महत्व दिया जाने लगा। जिसके बाद युद्ध पर युद्ध! शायद ही कोई युद्ध नैतिक एवं सामाजिक हित के लिए लड़ा गया, मानव जिन गुणों को लेकर मनुष्य बना, मनुष्य बनने के पश्चात वह जानवर से भी बद्तर व्यवहार करने लगा। फिर भी अलग अलग मतभेदों पर युद्ध होते रहें, राज्य की सीमाएं विस्तार लेती रहीं, प्रकृति का दोहन बढ़ता गया। मानव के मूलभूत विचारों की संरचना कहीं धूमिल सी पड़ गई, वह बस भौतिकता के बीच आंतरिक मूलों कहीं खो सा गया।

वर्तमान परिदृश्य में भी शहरी जीवन ने केवल और केवल भौतिकता को सर्वोपरि माना है। मगर जैसें ही जंगल का जीवन एक सीमा में बांध दिया गया, शहरीकरण अपने चरम पर पहुंच गया। नैतिक मूल्यों को दरकिनार कर दिया गया, पांवों तले रौंद दिया गए वे मूल्य, जिनके बल पर मानव, मनुष्य बना था। इसे शहरी परीक्षेप्य में देखा जाए तो शहरी जीवन विकसित होने के भ्रम में जंगली जीवन के समकक्ष हो गया, मगर वे पूरी तरह जानवर भी ना बन सके, उनमें केवल एक को दबाकर खुद को सर्वोपरि बनाने का गुण आया, जबकि जानवर ये केवल अपनी रक्षा एवं जीवन चक्र को जारी रखने के लिए करते हैं। मगर शहर जानवरों की तरह भावुक नहीं होता, शहरी जीवन भावनाओं से परे हो गया।

केवल और केवल शारीरिक सुख, और कुछ नहीं! जो कि बस दिखावे के लिए रह गया है। क्योंकि शहरी जीवन में पड़ोसी के साथ क्या हो रहा है, वो दुख में है तो कोई मदद करने नहीं जाता, बल्कि उसका वीडियो बनाकर फेसबुक या ट्विटर पर पोस्ट कर दिया जाता है। आजकल के जीवन में माता पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के पास अपने परिवार को समय देने के लिए भी समय नहीं होता।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है मगर इसका हल्ला अब वो बस सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर ही कर सकता है, वास्तविक जीवन में उसका सामाजिक प्राणी होने से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, हां यदि किसी ने अब भी ये मानवीय उत्कंठाएं, मानवीय भावनाओं को जीवित रखा है तो उसे हजारों ताने सुनने को मिलते हैं।

शहरी जीवन केवल भौतिक दृष्टि से विकसित है, उसका विकास केवल दिखावे का विकास है, जबकि सत्य यह है कि मानवीय मूल्यों के ह्यास ने इसे पतन के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब भी समय है की मनुष्य भौतिक जीवन के विकास के साथ, आत्मिक एवं मनुष्यता के गुणों का विकास किया जाना आवश्यक है।



#MJ
मनोज कुमार "MJ"

   9
3 Comments

Zakirhusain Abbas Chougule

23-Sep-2021 10:14 AM

Nice

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Gunjan Kamal

21-Sep-2021 09:50 AM

बेहतरीन प्रस्तुति

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🤫

20-Sep-2021 10:42 PM

बेहतरीन....एम जे.. प्राचीन से लेकर अब तक जो भी बदलाव आये है उसका यथायोग्य वर्णन किया है।

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