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काली





तू तो फूलों में हो कली जैसी
स्वर्ग में ही रही पली जैसी ।
देह को नेह से सँवारा है
किसी मकरन्द में घुली जैसी ।।

अंग-अंग में जडे है मोती 
प्रेम रंग में नहीं भिगोती ।
चमक भरी है विजली जैसी
पर खद्योत कभी तो होती ।।

तू कपास सी लगती कोमल
काश हृदय भी होता निर्मल ।
जो ऑखे  है सदन तुम्हारी
वो ऑखे भी रहें विकल ? ।।

जग ने हमको यही बताया 
पत्थर में है शम्भु समाया ।
बता रहा हूँ जग वालों को
पत्थर ने ही हमें सताया ।।

मौसम जैसी बदल गयी हो
यादोँ में बस सदल नयी हो ।
विना बातये वरस रही है
दो ही ऑखे यही-कहीं हो ।।


डॉ दीनानाथ मिश्र

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3 Comments

Very nice 👌👌

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Sachin dev

07-Mar-2023 07:31 PM

Nice

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Renu

07-Mar-2023 05:06 PM

👍👍

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