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सोच




गीत(घिनौनी सोच)
         
देख घिनौनी सोच नीति की,
आर लिखूँ या पार लिखूँ।
रंग बदलती इस दुनिया में-
कैसे जीवन-सार लिखूँ।।

लूट-पाट का दौर हुआ यह,
हुआ दौर यह हिंसा का।
स्वार्थ-पूर्ति की हेतु सभी जन,
तजे उसूल अहिंसा का।
लुटे अस्मिता अब नारी की-
कुत्सित सोच-विचार लिखूँ।
     कैसे जीवन-सार लिखूँ।।

धर्म-कर्म की बातें छोड़ो,
हुआ छिद्र संबंधों में।
रहा न भाई भाई का अब,
हैं दरार अनुबंधों में।
जन्म-दात्री माता छूटी-
छूटा पितु का द्वार लिखूँ।
     कैसे जीवन-सार लिखूँ।।

कैसे कह दूँ मानव अब तो,
रहा न मानव जो था कल।
हुआ नराधम कैसे कह दूँ,
बदला चोला कर के छल।
श्रेष्ठ सृजन मनुष्य सृष्टि का-
कैसे मैं धिक्कार लिखूँ।
     कैसे जीवन-सार लिखूँ।।

भ्रष्ट-बुद्धि जन-प्रतिनिधि अपने,
चाहें बस सिंहासन ही।
भोली जनता को बहका कर,
चाहें पाना आसन ही।
मन के काले पहन श्वेत पट-
इनका भ्रष्टाचार लिखूँ।
      कैसे जीवन-सार लिखूँ।।

आओ, मिलकर खाएँ कसमें,
मानव-गरिमा बची रहे।
प्यारी-प्यारी जीवन-बगिया,
सजी-सुगंधित रची रहे।
रोगी-वंचित-सेवा जीवन-
मन कहता उपकार लिखूँ।
     कैसे जीवन-सार लिखूँ।

             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 ९९१९४४६३७२


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3 Comments

Renu

10-Mar-2023 10:52 PM

👍👍🌺

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Muskan khan

10-Mar-2023 09:07 PM

Nice

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अदिति झा

09-Mar-2023 07:04 PM

Nice 👌

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