Arpit urmaliya

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भोर


विहँस रही थी प्रकृति हटाकर
मुख से अपना घूँघट–पट।
बालक–रवि को ले गोदी में
धीरे से बदली करवट

परियों सी उतरी रवि–किरणे
घुली मिलीं रज–कन–कन से।
खिलने लगे कमल दिनकर के
स्वर्णिम–कर के चुम्बन से

गंगा पट के मृदु–झोकों से
उठीं लहरियाँ सर–सर में।
रवि की मृदुल सुनहली किरणे
लगीं खेलने निझर्र में

फूलों की साँसों को लेकर
लहर उठा निर्जन वन–वन।
कुसुम–पँखुरियों के आँगन में
थिरक–थिरक अलि के नर्तन

देखी रवि में रूप–राशि निज
ओसों के लघु–दर्पण में।
रजत रश्मियाँ फैल गई
कुरुक्षेत्र के कण–कण में॥


~~ यह कविता लघुआँश है मेरी काव्यपुस्तक महाभारत से, आशा है आपको यह पसंद आएगी । मैं कोसिस करुगा इसका अगला भाग जल्द ही आप सबके सामने ला सकूं। धन्यवा

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2 Comments

Abhilasha Deshpande

20-May-2023 11:15 PM

fantastic

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madhura

20-May-2023 04:41 PM

very nice

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