राजर्षि
कहते हुए महाराज ने रघुपति के चेहरे पर अपनी मर्मभेदी दृष्टि स्थापित कर दी। राजा की सुगम्भीर दृढ आवाज रुद्ध तूफान के समान कुटी में कम्पायमान होने लगी। रघुपति ने कोई उत्तर नहीं दिया, जनेऊ पकड़ कर इधर-उधर करने लगा। राजा प्रणाम करके नक्षत्रराय का हाथ पकड़ कर बाहर निकल आए, साथ-साथ जयसिंह भी बाहर आ गया। कुटी में केवल एक दीपक, रघुपति और रघुपति की विशाल परछाईं रह गई।
अब तक आकाश का उजाला छिप चुका है। तारे बादलों में छिप गए हैं। आकाश के कोने-कोने में अंधकार है। पुरवा हवा में उस घने अंधकार में कहीं से कदम्ब के फूलों की गंध आ रही है और जंगल में मर्मर ध्वनि सुनाई पड़ रही है। राजा इस परिचित मार्ग पर चिन्ता में डूबे जा रहे हैं, सहसा पीछे से सुनाई पड़ा, किसी ने पुकारा - "महाराज!"
राजा ने पीछे मुड कर पूछा, "तुम कौन हो?"
परिचित स्वर ने कहा, "मैं आपका अधम सेवक, मैं जयसिंह। महाराज, आप मेरे गुरु हैं, मेरे स्वामी हैं। आपके अलावा मेरा और कोई नहीं है। जिस प्रकार आप अपने छोटे भाई का हाथ पकड़ कर अंधकार में से लिए जा रहे हैं, उसी प्रकार मेरा हाथ भी पकड़ लीजिए, मुझे भी साथ ले चलिए; मैं गहरे अँधेरे में गिर गया हूँ। किसमें मेरा भला होगा, किसमें बुरा, कुछ भी नहीं जानता। मैं एक बार बाएँ जा रहा हूँ, एक बार दाएँ, मेरा कोई कर्णधार नहीं है।"
उसी अंधकार में आँसू गिरने लगे, कोई नहीं देख पाया, केवल आवेग भरा जयसिंह का आर्द्र स्वर काँपते हुए राजा के कानों में पडता रहा। स्तब्ध स्थिर अंधकार वायु-चंचल समुद्र के समान आंदोलित होने लगा। राजा जयसिंह का हाथ पकड़ कर बोले, "चलो, मेरे संग महल में चलो।"