राजर्षि

राजर्षि (उपन्यास) : दूसरा भाग : चौदहवाँ परिच्छेद

उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन में जाकर बैठा, तो उसकी सारी पुरानी स्मृतियाँ मन में जागने लगीं। इसी वन में, इसी पाषाण के मंदिर की पत्थर की सीढ़ियों पर, इसी गोमती के तट पर, इसी विशाल वट की छाया में, इसी छाया से घिरे पोखर के किनारे उसे अपना बाल्य-काल सुमधुर स्वप्न की भाँति याद आने लगा। जो सम्पूर्ण मधुर दृश्य उसके बाल्य-काल को स्नेहपूर्वक घेरे रहते थे, वे आज हँस रहे हैं, उसे आज पुन: बुला रहे हैं, परन्तु उसका मन कह रहा है, 'मैं आज यात्रा पर बाहर निकल आया हूँ, मैंने विदा ले ली है, मैं और नहीं लौटूँगा।' स्फटिक के मंदिर पर सूर्य की किरणें पड़ रही हैं तथा उसकी बाईं ओर की दीवार पर बकुल की शाखाओं की कम्पित छाया पड़ रही है। बचपन में जिस प्रकार यह स्फटिक-मंदिर सचेतन अनुभव होता था, इन सीढ़ियों पर बैठ कर खेलते समय सीढ़ियों में जैसा संग-साथ पाता था, आज प्रभात की सूर्य-किरणों में मंदिर को वैसा ही सचेतन, उसकी सीढ़ियों को उसी प्रकार शैशव की आँखों से देखने लगा। मंदिर के भीतर माँ आज फिर से माँ के रूप में अनुभव होने लगी। किन्तु अभिमान में उसका हृदय भर आया, उसकी दोनों आँखों से आँसू टपकने लगे।

रघुपति को आता देख जयसिंह ने आँसू पोंछ डाले। गुरु को प्रणाम करके खड़ा हो गया। रघुपति ने कहा, "आज पूजा का दिन है। याद है, माँ के चरण स्पर्श करके क्या शपथ ली थी?"

जयसिंह ने कहा, "है।"

रघुपति - "शपथ का पालन तो करोगे? "

जयसिंह - "हाँ।"

रघुपति - "देखो वत्स, काम सावधानी से करना। विपत्ति की आशंका है। मैंने तुम्हारी रक्षा के लिए ही प्रजा को राजा के विरुद्ध भड़का दिया है।"

जयसिंह चुपचाप रघुपति के चेहरे की ओर देखता रहा, कोई उत्तर नहीं दिया; रघुपति उसके सिर पर हाथ रख कर बोला, "मेरे आशीर्वाद से तुम निर्विघ्न अपना कार्य संपन्न कर पाओगे, माँ का आदेश पालन कर सकोगे।"

इतना कह कर चला गया।

राजा अपराह्न में एक कक्ष में बैठे ध्रुव के साथ खेल रहे हैं। ध्रुव के आदेश के अनुसार एक बार मुकुट सिर से उतार रहे हैं, एक बार धारण कर रहे हैं; ध्रुव महाराज की यह दुर्दशा देख कर हँस-हँस कर बेहाल हो रहा है। राजा तनिक हँस कर बोले, "मैं अभ्यास कर रहा हूँ। यह मुकुट उनके आदेश पर जिस प्रकार सहजता से धारण कर पाया हूँ, इस मुकुट को उनके आदेश पर उतनी ही सहजता से उतार भी पाऊँ। मुकुट धारण करना कठिन है, लेकिन मुकुट त्यागना और भी कठिन है।"

सहसा ध्रुव के मन में एक विचार आया - कुछ देर राजा के मुकुट की ओर देख कर मुँह में उँगली डाल कर बोला, "तुमि आजा।" राजा शब्द से 'र' अक्षर एकदम से समूल लोप कर देने पर भी ध्रुव के मन में जरा भी पश्चात्ताप उत्पन नहीं हुआ। राजा के मुँह पर राजा को आजा बोल कर उसे सम्पूर्ण आत्म-सुख मिला।

राजा ध्रुव की इस धृष्टता को सहन न कर पाने के कारण बोले, "तुमि आजा।"

ध्रुव बोला, "तुमि आजा।"

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