निरुपमा–29
यामिनी बाबू फँसे। तुला उत्तर न सूझा। बोले, 'प्रोफेसर बनर्जी, चटर्जी, मुकर्जी-सब अपने आदमी तो हैं? बैरिस्टर घोष भी अपने ही हैं। इनकी आवाज में ताकत है।
कुछ तअल्लुकेदार हैं, बुद्ध; इनकी हाँ-में-हाँ मिलाया करते हैं। ये जानते हैं और ठीक भी है, तुम्हें भी स्वीकार करना होगा, अभी बंगालियों का मुकाबला हिंदुस्तानी नहीं कर सकते। एक हिंदुस्तानी जितना पढ़कर समझता है, एक बंगाली उससे ज्यादा सिर्फ देखकर।"
"मेरा खयाल है, सिर्फ सुनकर।' निरुपमा कहकर गहरी मनोभूमि में उतर गई। यह भाव भी ठीक-ठीक यामिनी बाबू की समझ में न आया. वे उसी सहृदयता से बोले, "हाँ, यह भी ठीक है; देहात में बहुत-से बंगाली हैं
जिन्हें कलकत्ता देखने का अवसर नहीं मिला; पर सुनकर वे बहत-सी बातें जानते हैं; उन्हें मौका भी है; जो जितना जानता है, वह उतना सुना भी सकता है; हिंदुस्तानियों के पास तुलसीदास की रामायण के सिवा सुनाने की चीज है क्या? -इधर एक नौटंकी चली है।"
धीरे-धीरे बगीचे से कैसर-बाग तक खुली जगह पार हो गई। निरुपमा ने बातचीत करना बंद कर दिया। समझकर यामिनी बाबू भी चुप हो रहे।
रास्ता तय होता जा रहा था; पर हृदय चाहता था, अभी और साथ हो-और बातचीत हो। प्रेयसी की विमुखता उनके लिए सुमुखता थी, क्योंकि वे उसका अनुकूल अर्थ लगाते थे।
इसी समय रास्ते के एक बगल बैठा, कैप-कोटवाला एक चमार देख पड़ा।
यामिनी बाबू बोले, "यह कुछ पढ़ा-लिखा होगा; अगर चमार है तो समझना चाहिए, इसे जगह नहीं दी ऊँचे वर्णवालों ने, इसलिए कलम छोड़कर अपना पेशा इख्तियार कर लिया है। इसे पैसा देना चाहिए।
अगर चमार नहीं, तो भी; क्योंकि इसने एक आदर्श सामने रखा।" फिर बढ़ते हुए चमार के सामने जाकर खड़े हुए। निरुपमा को भी साथ चलना पड़ा। पर पास पहुँचकर देखकर जरा ठिठुक गई-'चमार!' मन में अव्यक्त ध्वनि हुई। कृपा की दृष्टि से देखते हुए उपकार करनेवाले स्वर से यामिनी बाबू ने कहा, '36, हिवेट रोड पर आधा घंटे-भर बाद, हम काम देंगे; अभी यही पेशगी देते हैं," एक इकन्नी फेंकते हुए, "तुम कौन हो?"
"इस वक्त तो चमार हूँ," इकन्नी वापस करते हुए कुमार ने कहा, "मैं घंटे-भर बाद वहाँ आऊँगा, तब काम करके पैसे लूँगा, मैं आपकी कृपा के लिए हृदय से कृतज्ञ हूँ।"
"तो तुम चमार नहीं हो; अच्छा, वहीं तुमसे पूछेगे।" यामिनी बाबू मंडी की तरफ मुड़े।