निरुपमा–54

विनीत स्वर से रामचंद्र ने कहा, "जी, मुझे रामचंद्र कहते हैं।" मन से रामचंद्र ने समझ लिया, यही हमारे गाँव की मालकिन हैं।

"रामचंद्र कृपालु भजु मन हरन भवभय दारुणम्," निरुपमा हँसती आँखों देखती हुई बोली, "रामचंद्र हमारे राजा हैं।

हमारे बड़े भाग हैं जो हमारे यहाँ आए हुए हैं।" कुर्सी की ओर हाथ से इंगित करती हुई बोली, "बैठिए।"

लजाया हुआ रामचंद्र बैठ गया। निरू ने दासी से जलपान लाने के लिए कहा।

निरू की आँख नहीं हटती। मुख की मधुरता में अपार तृष्णा बुझ रही है। दासी के हाथ से तश्तरी लेकर बड़े प्यार से हाथ पर रखी और शौक करने के लिए कहा।

बालक निस्संकोच भाव से खाने लगा।

गाँववालों के असद् हृदय अमानुषिक बर्ताव का प्रभाव बालक पर माँ से अधिक पड़ा था जिन्हें वह भक्ति करता था, अपना समझता था, जिनके प्रति संसार के अन्य लोगों से उसका अधिक आकर्षण था, जब वही संसार के सबसे बड़े शत्रुओं में बदल गए, तब बालक एकाएक कवाकर रह गया।

मनुष्य मनुष्य के प्रति इतना बड़ा बैर कर सकता है, यह कभी उसकी कल्पना में न आया था। उनके लिए गाँव-भर के द्वार बंद हैं।

कोई उससे प्रीतिपूर्वक नहीं बोलता। गाँव के कुँओं में उसका पानी भरना बंद है। नाई, धोबी, कहार, कोई अब उसकी प्रजा नहीं, उसका काम नहीं करते।

उसके दाढ़ी-मूँछे नहीं, बाल हैं; शहर जाकर बनवाता है। छुट्टियों में केवल रास्ता और घर; केवल माँ का मुख देखने के लिए आता है।

माँ की इच्छा रामपुर रहने की नहीं, पर लाचारी है; और कहीं जगह नहीं। भाई प्रसिद्ध विद्वान हैं; पर कहीं किसी ने जगह नहीं दी।

अब वह... । बालक सोच भी नहीं सकता कि उसका भाई चमार का काम करता है, और इस कमाई से उसने रुपये भेजे हैं। केवल भाई के ओजस्वी शब्द, निर्जीव पत्र में भी आग के अक्षरों से लिखे हुए जैसे, उसे धैर्य और शक्ति देते हैं, वह चुपचाप प्रहार सहता जा रहा है।

उसकी माँ का स्नेह उसे शांत करता है। उसकी माँ, जिसने कभी पानी नहीं भरा, दूर खेत के कुएँ से पानी लाती है।

इस प्रकार साँसत में पड़े बालक को आज गाँव की सबसे बड़ी शक्ति से स्नेह मिला। खाता हुआ सोचने लगा, 'क्या ये मेरा बाग बेदखल कर सकती हैं?

क्या इन्होंने मेरे खेत छीन लेने की सलाह दी होगी? मेरे खेत जुतवाने के लिए आई हैं?' आप-ही-आप एक-दूसरे मन ने उत्तर दिया, 'नहीं, यह सब सुरेश बाबू का चलाया चक्र है, ये ऐसा नहीं कर सकतीं।'

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