निरुपमा–55

रामचंद्र के भोजन कर चुकने के बाद दासी ने हाथ धुला दिए। एक दूसरी कुर्सी पर निरू बैठी थी। नीली कुर्सी का पिछला हिस्सा पकड़े हुए खड़ी हुई।

"राजा रामचंद्र, पढ़ते हो?" निरू ने पूछा।

"जी हाँ।" लड़के ने सम्मान के स्वर में कहा।

"किस क्लास में हो?"

"जी, एइट्थ में।"

"अच्छा! हाँ, राजा रामचंद्र को कम उम्र में ज्यादा अक्ल होनी ठीक भी है।"

बालक मुस्कुराया।

"अच्छा, रामचंद्रजी, तुम्हारे और भाई कहाँ हैं?"

बालक फिर मुस्कुराया, बोला, "दादा लखनऊ में हैं।"

"नाम?"

"डॉक्टर कृष्णकुमार।"

निरू हँसी, "उलट गया, राजा रामचंद्र के तो छोटे भाई को कृष्णकुमार होना था।"

नीली भी हँसी।

बालक लजाकर झुक गया। तब तक फिर स्नेह से देखती हुई निरू ने पूछा, "आपके छोटे भाई साहब वहाँ क्या करते हैं?"

बालक मर्म की बात कह न सका। निरू से आँखें मिलाकर हँसता रहा।

"जानती हूँ," निरू बोली, "मेरे यहाँ भी आए थे।"

बालक और खिल गया। फिर अपनी ही प्रेरणा से उठकर खड़ा हो गया और हाथ जोड़कर प्रणाम कर बोला, "दीदी, चलता हूँ।"

निरू को किसी ने गुदगुदा दिया। उठकर जल्दी से बढ़कर, लड़के को पकड़कर, एक अननुभूत स्पर्शसुख अनुभव करती हुई, खींचकर बोली, "अभी तो आप आए, बातचीत जम भी न पाई कि चलने लगे। बैठिए।"

बालक बैठ गया।

"हाँ, तो आपके भाई साहब डॉक्टर कृष्णकुमार क्या करते हैं?" अबकी गंभीर होकर पूछा, नीली रामचंद्र को देखकर मुस्कुराती रही।

"मैं नहीं जानता।" कुछ रुखाई से, सर झुकाए हुए बालक मुस्कुराता रहा।

फिर प्रश्न हुआ, "किस विषय के डॉक्टर हैं-होमियोपैथी के?"

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