Add To collaction

पर्यावरण-सुरक्षा

पर्यावरण-सुरक्षा

गाँव की गलियाँ सूनी लगतीं,
सूने बाग़-बगीचे।
जलाभाव में सूखे पड़ गये,
खेत सभी बिन सींचे।
चलो,जलाशय-नदी बचाएँ-प्रकृति-प्रेम की अलख जगाएँ।।

भीषण ताप प्रचंड सूर्य का,
धरती को ललकारे।
कहे प्रदूषण रोको अपना,
जो हो साँझ-सकारे।
मौसम हाहाकार मचाएँ-प्रकृति-प्रेम की अलख
जगाएँ।।

जंगल जलें, समुंदर उफ़ने,
तूफानों का रेला।
ज्वालामुखी-अवनि-कंपन का,
रह-रह लगता मेला।
चलो,क़ुदरती भूत भगाएँ-प्रकृति-प्रेम की अलख जगाएँ।।

कहीं बवंडर-चक्रवात से,
वृक्ष-वनस्पति टूटे।
बरपे कहर कहीं विश्व में,
जब-जब घन-घट फूटे।
चलो, रुष्ट जल-देव मनाएँ-प्रकृति-प्रेम की अलख जगाएँ।।

माटी खोए उपजाऊपन,
जल का स्तर घटता।
पशु-पक्षी का लोप देख कर,
मन-चित सबका फटता।
चलो,परिंदा-वंश रखाएँ-प्रकृति-प्रेम की अलख जगाएँ।।

अंधाधुंध प्रयोग मशीनी,
घातक-मारक जानो।
विष घोले सबके जीवन में,
ऐसा इसको मानो।
चलो,न ऐसा रोग लगाएँ-प्रकृति-प्रेम की अलख जगाएँ।।

जल-कण,भोजन-कण की रक्षा,
मात्र धर्म है अपना।
यदि हो जीवन ऐसा तो,
साकार हो सबका सपना।
चलो,नींद से फिर जग जाएँ-प्रकृति-प्रेम की अलख जगाएँ।।
                 ©डॉ. हरि नाथ मिश्र
                      9919446372

   7
2 Comments

Gunjan Kamal

02-Oct-2023 01:40 PM

👏👌

Reply

Babita patel

02-Oct-2023 10:51 AM

Awesome

Reply