स्वप्न
*स्वप्न*
कितने स्वप्न पड़े हुए थे,
उस खण्डहरी दीवारों में।
जहाँ बचपन गुजरा था,
जिल्लत और अभावों में।
रोज रात को छत का कोना,भीगता था अश्रु- जल से।मन भागता था,
किसी हवेली की छत पे।
आज नहीं कल रोटी होगी,भूख पेट से सटी दिलासा देती थी।
मगर वो कल बचपन का,
आया ही नहीं फिर कभी।
सोलवें सावन तक यही
दशा रही,खुशियों की न
कोई रात हुई।स्वप्न सारे
बचपन के,आँसुओं में
तिरोहित हुए।
बसंती यौवन जब खिलने लगा,अंग-अंग चटकने लगा।स्वप्न भी जवां हो गये,मन मृगतृष्णा सा
भटकने लगा।
मगर ख्वाब कोई परवान
न चढ़ा,मन मार दहलीज
पराई चढ़ना पड़ा।चौके-
चूल्हे के धुएँ में यौवन
धुंधला पड़ गया।
इक छोटे-से घर का सपना, रसोई में सिमट गया।रुमानी खयाल,
नमक- तेल में घुल गया।
देखती हूँ जब भी खण्डहर अपना पुराना,
अपने खण्डहर होते जिस्म से तुलना करती हूँ।
डा.नीलम
Gunjan Kamal
30-Jan-2024 04:22 PM
बहुत खूब
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Mohammed urooj khan
30-Jan-2024 01:36 PM
👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾
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Shnaya
29-Jan-2024 09:28 PM
Very nice
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