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दर्द

दर्द मेरा मैं खुद से छिपाता रहा,

वक्त की रेत को दफनाता रहा।

जुगलबन्दी रही अश्क से बूँद की,
मैं समंदर को खारा बनाता रहा।

सहरा-सहरा भटकता रहा तिश्नगी,
दूर दरिया मुझे नज़र आता रहा।

अश्क कतरा हिना की बने रंगतें,
मैं खून से हथेली सजाता रहा।

मैं उतरा था आंखों की गहराई में,
आंसुओं में ही खुद को बहाता रहा।

रात ढलती रही दिन के दीदार में,
मैं जमीं पर सितारे बिछाता रहा।

तारों को चुराने की ख्वाहिश बहुत,
"श्री" समंदर में गोते लगाता रहा।

स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान) 

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6 Comments

Rupesh Kumar

18-Feb-2024 07:08 PM

बहुत खूब

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Mohammed urooj khan

17-Feb-2024 02:49 PM

👌🏾👌🏾👌🏾

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बहुत ही सुंदर सृजन

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