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पाप-पुण्य

पाप पुण्य एक सिक्के जैसे,

जिसके दो पहलू होते हैं,
पुण्य करें तो राहत मन में,
जन पाप करें वे रोते हैं।

पुण्य कस्तूरी कुरंग जैसा,
जाए जहाँ महकता कानन,
पाप कलंक स्याह रातों सा,
कालिख सा काला है आनन।

कलियाँ चटके खुशबू फैले,
पुण्य यश सुरभित हो जाए,
पाप जलाए भट्टी जैसा,
दुर्गंध इसकी फैलती जाए।

पुण्य सर्वदा खुलकर होता,
जैसे मात-पिता सेवा हो,
पाप पापी छिपाए करता,
चोरी से खाता मेवा हो।

पाप पुण्य के दो पलड़े हैं,
जो पलड़ा नीचे झुक जाए,
जिस पलड़े में सत्कर्म बढ़े,
वही ईश से मिलन कराए।

धृति,क्षमा,अस्तेय,सत्य,विद्या,
कुछ शास्त्र पुण्य आधार हैं,
चोरी,झूठ,निंदा,बकवास,
पर स्त्री गमन पाप विकार हैं।

पुण्य कर्म रोते को हँसाना,
ईश्वर "श्री" मुस्करा जाए,
अगर आँख में आंसू आए,
पाप कर्म बढ़ता ही जाए।

स्वरचित- सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान)


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9 Comments

Shnaya

23-Feb-2024 12:49 AM

Nice

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Gunjan Kamal

22-Feb-2024 11:47 PM

👌🏻👏🏻

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Varsha_Upadhyay

22-Feb-2024 10:11 PM

बहुत खूब

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