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द्विसदन


ऐसा जीवन नारी का, 
जैसे हो तलवारों में दो धार।
मिलती दिशा जो इनको, 
बहती जाती है उस ढार।

दुहिता जनक हृदयांश है, 
निलय होता पूरा संसार।
परिणय रच वनिता होती, 
अपरचित होता घर द्वार।

अवयव की सुन्दर कोमलता, 
रूप की हेमा रहती।
अबला का पर्याय है ये, 
पंक्षि बन पिजरे में होती।

दान पत्र की पतरी में, 
उत्सव से परोसा इनको जाता।
उत्सर्ग करता निर्मम से, 
जिनको हृदय से पाला जाता।

सपुष्पक फल है इनका जीवन, 
दो पाटन में बटती।
दो सदनों का पथ है, 
अलोकमयी दोनों को करती। 

सर्वस्व समर्पण अपना करती, 
बनती जीवनदाता।
निर्माता है जग की जननि, 
धन्य है यह जगमाता।

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3 Comments

बहुत ही बेहतरीन रचना

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Aliya khan

31-Mar-2021 01:43 PM

👍👍👍👍

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Abhishek sharma

27-Mar-2021 06:58 PM

best kavita sir

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