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नीति-वचन-4

*नीति-वचन*-4
मिलै न मानिक हर गिरि-सैला।
गज-मुक्ता माथे गज बिरला।।
    नहिं संतन्ह सर्बत्र निवासा।
     चंदन हर बन नहीं सुबासा।।
डूबै जे जन सिंधु गँभीरा।
मोती मिलै जगत वहि बीरा।।
    सुतल सिंह मुख हिरन न प्रबिसै।
    उद्योगी-गृह लछिमी पइसै ।।
मन मा राम बगल मा छूरी।
कह पुरान रखु अस जन दूरी।।
   नीति-रीति अरु प्रीति न जानै।
    कलि-जुग अस जन पंडित मानै।।
चंदन-तिलक लगा,गर माला।
मंत्र असुद्ध पढ़हिं जगि-साला।।
    अस ढोंगी कँह पूजहिं लोंगा।
    धनि-धनि अस कलिजुग संजोगा।।
नैतिक पतन,मनुजता-हानी।
बोलहिं जदपि उ कोमल बानी।।
    कोमल हृदय गरल-घट नाईं।
    प्रेम-बासना भेद न पाईं ।।
दोहा-बोल-मोल अब नहिं कछू, नहिं अब बचन-निबाह।
        कपट-कुटिलता हिय बसै,सभ मुख निकसै आह।।
                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

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3 Comments

Mohammed urooj khan

16-Apr-2024 10:40 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

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Gunjan Kamal

08-Apr-2024 08:07 PM

बहुत खूब

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Varsha_Upadhyay

07-Apr-2024 10:01 PM

Nice

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