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नीति-वचन-14

*नीति-वचन*-14
चित्त कबहुँ नहिं खल कै थीरा।
रहइ असांत असंत अधीरा।।
   सिंधु उमड़ि जा मिलै अकासा।
   चंद्र-प्रेम मा हुलसि-उलासा।।
बरसहिं जलद अवनि जब प्यासी।
 गान परिंदा हरै उदासी ।।
    झरना झरही,बहहि समीरा।
    हरै सदा कुदरत भव-पीरा।।
सज्जन धन पा सदा नवाहीं।
धन पा खल तुरतहिं बउराहीं।।
     नवै डारि तरु जब फल लागै।
      ग्यान-बाढ़ मूढ़ता भागै ।।
संपति-बिपति जासु चित थीरा।
अइसन पुरुष होंय बलबीरा।।
    साहस-धीरज बिपतिहिं साथी।
     लोहा भस्म होय जा भाथी।।
बिजुरी-बादर,बरखा-पानी।
जीवन-मरम बतावैं ग्यानी।।
     अवनि-अकास,अनल अरु नीरा।
      बायु लेइ बिधि रचेउ सरीरा।।
पाप-पुन्य औरु गुन-दोषा।
उपजहिं पूर्ब कर्म-फल-कोषा।।
     करनी-भरनी नियम सटीका।
      जस-अपजस कै लागै टीका।।
काजर-गृह जब प्रबिसहु भाई।
कारिख-दागि अवसि लगि जाई।।
     झुके न दुष्ट कबहुँ बरिआई।
      नवै मात्र ऊ स्वारथ पाई।।
दोहा-हीत-मीत परखेउ तबहिं, जब रह बिपदा आय।
        मीत झपटि आ गर मिलै,अरि अनहित मुस्काय।।
                           डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372

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