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विश्वास

कच्ची है डोरी रिश्तों की, टूट जाए नहीं जुड़ती,

लग जाए गाँठ अगर इसमें, ये ता-उम्र कसकती है।

जुड़ जाती हैं टूटकर भी, जहाँ की तमाम इबारतें,
मरम्मत हो नहीं पाए, मगर टूटे भरोसे की।

निकल गई उम्र ये सारी, रिश्तों के जोड़ बिठाने में,
टूटकर बिखर गईं किरचें, खरोंच भरोसे पर आई।

वक्त की आँधी में गहरी, दरारें बढ़ती ही जाएँ,
न जाने कब का रिश्तों ने, दामन विश्वास का छोड़ा।

ख़नकती बातों का ज़रिया, ख़ामोशी ओढ़कर बैठा,
मशग़ूल हर कोई खुद में, मुलाक़ाती वक्त भी ठहरा।

छोड़ दिया हमने रिश्तों को, निभाना कद्र भी करना,
जब मेरा समर्पण ही, तराजू स्वार्थ पर तोला।

आहत होते हैं जज़्बात, भरोसा रूठ जाता है,
लहरों से जंग जारी है, “श्री” मन भीग जाता है।

स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"
धौलपुर (राजस्थान) 

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2 Comments

Varsha_Upadhyay

04-May-2024 01:27 PM

Nice

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Sarita Shrivastava "Shri"

03-May-2024 11:57 PM

👌👌

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