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पंछी

मुंडेर पर न कोई सुग्गा,

रटे नहीं मिट्ठू राम-राम।

जोहे नहीं बाट पहुना की,

भाए नहीं संग अतिथि शाम।

खो गए जंगलात गाँव से,

बिछड़ती हैं राहें छाँव से,

भटकते वनचर और पंछी,

बेघर हुए अपने ठाँव से।

हो गई लुप्त कागा वाणी,

शहरी गढ़ या कोई ढाणी,

ढूंढ़ते श्राद्ध-पक्ष कौवे,

जो ना पिलाएं कभी पाणी।

न बाग अमरूद अरु आम के,

नीड़ उजड़े खग विश्राम के,

कहाँ कुहुक कोयल मधु वाणी।

नहीं शाख पर बौर आम के।

खेत में इंसान का डेरा,

मिटाए जंगल कर बसेरा,

विस्फोटक आबादी जन की,

श्मशान कब्रिस्तान भी घेरा।

पुतला है स्वार्थ का मानव,

जरूरतें सब इसकी दानव,

फैलाए किरणें जब टॉवर,

तड़प कर शान्त हुआ कलरव।

डूब गई चीं-चीं खग शक्लें,

चुगे कहाँ गौरैया फसलें,

बया की कारीगरी रूठी,

स्वाह हुई पंछी “श्री” नस्लें।

स्वरचित-सरिता श्रीवास्तव "श्री"

धौलपुर (राजस्थान)

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3 Comments

Gunjan Kamal

03-Jun-2024 04:03 PM

👌🏻👏🏻

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kashish

15-May-2024 08:38 AM

Amazing

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Sarita Shrivastava "Shri"

14-May-2024 10:23 PM

👌👌

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