Khushi jha

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कविता

हमें फुरसत नही अपने गम से,
जिन्दगी भी रूठ सी गयी है जाने क्यूं हमसे,
आंखों में आँसु है फिर भी हसना मजबुरी है,
कैसे कहूँ क्यूं खुद से हीं दुरी है,
टुट चुके हैं हम कहते हैं कसम से,
जिन्दगी भी रूठ सी गयी है जाने क्यूं हमसे,
बहारों को बुलाया तो था सजाने को गुलिस्तां
ना बहार आयी ना कोई फरिस्ता,
अब पूछता नही हाल कोई हमसे,
टुट चुके हैं हम तो कसम से,
जिन्दगी भी रूठ सी गयी है जाने क्यूं हमसे।
ना इश्के मोहब्बत हुआ है
ना दिले आशिकी की सजा है
फिर भी जाने क्यूं दिल मेरा दिले आरजू से खफा है,
दर्द भी गुजरने लगा है अब तो हद से,
टुट चुके हैं हम तो कसम से।
आ चांद आ तु हीं तो अब साथी बन गम के मेरे,
अब तक सम्भाल कर रखा है
जाने कब कदम मयखाने की ओर बढ़े,
रोके ना रुकेंगें अब हम कसम से,
जिन्दगी भी रूठ सी गयी है जाने क्यूं हमसे।
एक सपना था वो भी टुट गया,
दिल मेरा मुझसे हीं रूठ गया
लिख के मिटाया
मिटा के लिखा ना जाने कितनी बार नशीब अपना अपने कर्मों के कलम से
फिर भी,
जिन्दगी  भी रूठ सी गयी है जाने क्यूं हमसे।


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