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अपनापन

ढूंढती रही खुद को ताउम्र,
कितने अपनों के सपनों में,
कहीं भी थाह नहीं मिलती,
कहीं भी पनाह नहीं मिलती,
तलाशती रही मृगतृष्णा में,
हर रिश्तों के रेगिस्तान में, 
स्नेह नीर की अभीप्सा लिए,
कितने निष्ठुर, निर्मम,निर्मोही
पाषाण से कठोर रिश्ते होते,
विवशता कब देख पाते,
देखते सीमित दायरे से,
तोल लेते है अंदाजे से,
प्रेम को कौन समझ पाते ,
कुछ अर्थ निश्छल भी होते,
कुछ मर्म निस्वार्थ भी होते,
मन इतने संकीर्ण क्यों होते,
तन इतने विदिर्ण क्यों करते,
संदेह से निकलकर देखना 
धारणा से हट कर  देखना,
हर अपनी तरह अलग होता,
जीनेका रंग ढंग अलग होता
जीवन देहरी पर तटस्थ रहा 
परीक्षा के दांव लगता रहा,
तो भी नहीं खरा उतर पाया
रिश्तों की कसौटियों पर
मेरा अपनापन .....

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23 Comments

Aman Mishra

14-Jun-2021 11:37 AM

अति सुंदर रचना😊🙏

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बहुत ही बेहतरीन रचना 👌👌

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Seema Priyadarshini sahay

12-Jun-2021 09:13 PM

बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ

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Kumawat Meenakshi Meera

13-Jun-2021 08:52 AM

Bahut आभार सीमा जी

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