kanchan singla

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दर्पण

दर्पण जैसे कुछ कहता है हमसे,

हमको मिलवाता है हमसे,
दीदार करवाता है हमारा ही हमसे।।

नए रंग रूप दिखता है दर्पण,
पर सच कहां दिखा पता है दर्पण, 
हम निहार पातें हैं बस उपरी अक्स को,
अंदर की व्यथा कहां कह पाता है दर्पण।।

उन टूटे कंचों की कहानी,
जैसे बिखरे हुए जीवन की कोई कहानी,
एक एक जोड़ करीने से,
टुकड़े जीवन के या कांचों के,
एक हल्की सी दरार झांकती है कहीं से।।

अक्स भले ही दर्पण में हो,
आत्मा भले है शरीर में हो,
इक दिख कर भी नहीं दिख पाए,
इक होकर बस महसूस की जाए,
इन चलती सांसों के जरिए।।

दर्पण एक चाहिए मुझे भी,
देख पाऊं मैं खुद को ही,
हर सच, हर झूठ,
जो कहा ना कभी,
ना किसी से और ना ही स्वयं से।।

क्या है कोई दर्पण ऐसा ...??
जो रूबरू करवा जाए,
अंतर्मन की शाखों से गुजर कर,
मुझसे ही मुझको मिलवा जाए।।

लेखिका - कंचन सिंगला

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7 Comments

Priyanka06

22-Jun-2022 09:02 AM

बहुतसुंदर अभिव्यक्ति

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Shrishti pandey

09-Dec-2021 08:28 AM

Adbhut

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Arman Ansari

09-Dec-2021 12:30 AM

Behtarin

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