Arti Gaur

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कविता

बेटी बन कर आई हूं इस धरा पर
औरत बन विदा हो जाऊंगी
इस बीच क्या क्या तंज सहे
गर सुनाई वो दास्तां तो 
सबकी आंखे नम कर जाऊंगी

इसलिए तो खमोशी से जीना सीखा
घूंट हर दर्द का पीना सीखा
जख्म लगे जो सीने पर 
उनको खुद से ही सीना सीखा

मैं उस अबला द्रोपदी का रूप हूं
जो जुवा में हारी जाती हूं
वो सीता भी मैं ही हूं
जो तुच्छ व्यक्ति के आरोप पर
अग्नि परीक्षा की भेंट चढ़ जाती हूं !!

पीहर वाले जिसको पराया धन कहते हैं
और ससुराल वाले पराए घर की बेटी
आखिर कौन सा घर है मेरा यहां
कहां लिखी ईश्वर ने मेरे हक की रोटी !!!!

बाहर निकलती हूं जब भी खुद को आजमाने
बहसी नजरों से बचना मुश्किल होता है
पुरुष प्रधान इस निर्लज दुनिया में
हर कोई औरत को जाने क्यूं अबला कहता है !!!!

जबकि वो औरत की ही ताकत है
जो खुद की जान जोखिम में डाल
इस समाज को जन्म देती है
फिर क्यूं आंका जाता है कम उसकी ताकत को
अरे वो तो लोहे से भी मजबूत होती है !!!!
आरती गौड़ "लेखिका"

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7 Comments

kashish

07-Feb-2023 08:56 PM

nice

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Deepak Dangaich

22-Oct-2021 02:15 PM

Nice

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Niraj Pandey

09-Oct-2021 04:32 PM

बहुत खूब

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