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चांँद

शाम होते   ही  मुझे   चांँद    नज़र    आता   है।
मेरे आंँखों  में आजकल  वो  उभर  आता   है।

मन के आंँगन को अंँधेरों ने  जब भी घेरा तब।
चांँद आंँखों से कागजों  पे   उतर   आता     है।

मेरे किरदार में बदबू  है  मुझसे  संँभला   कर।
चांँद   तो  दूर   से   भी   दूर   गुजर  जाता    है।

एक शुबहा  में फ़ना आज हुआ मैं   "दीपक"
रात  छंँटते  ही   मेरा   चांँद  किधर   जाता  है।



दीपक झा "रुद्रा"

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1 Comments

Seema Priyadarshini sahay

04-Feb-2022 11:56 PM

बहुत ही खूबसूरत

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