अजनबी सा लगता हूँ अब
अपनी रूह की तलाश में भटक रहा मन मेरा आज कल
कभी अपने थे इस शहर में कुछ लोग
आज अनजाने शरीर से लगते है वो
आंख देखकर दिल पढ़ जाते थे कुछ लोग
सांसें सुनकर धड़कन पढ़ जाते थे कुछ लोग
अब राह का कांटा समझकर रास्ता बदलने लगे
अजनबी समझकर नाम बदनाम करने लगे
कभी एक आवाज में जान छिड़क जाने वाले कुछ हमराही थे
कभी आहट से ही अहमियत जता देने वाले हमसफर थे
मैंने कुछ पन्ने सहेज कर रखे हैं आज भी
उन पन्नों में आज भी हमारी जिंदादिली जिंदा है
उन पन्नों में हमारी ईमानदारी जिंदा है
उन पन्नों में हमारी शख्सियत की महक जिंदा है
उन पन्नों में हमारी जवाबदारी जिंदा है
आज लगता है जैसे मैं जलता हुआ पन्ना बन गया
जिसकी गर्माहट से लोग जलने लगे
एक तड़प सी उठती है जब लोग अजनबी बन जाते हैं
एक असहनीय दर्द उठता है जब अजनबी का तमगा थमा जाते हैं
कोई है ऐसा जो इस दर्द की दवा ढूंढ लाये
कोई है ऐसा जो फिर से सब पहले जैसा समा बांध दे
मैं नही कोई अजनबी,
मै
ऋषभ दिव्येन्द्र
28-Jun-2021 06:54 PM
वाह , बेहद ही शानदार रचना 👌👌
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Mukesh Duhan
28-Jun-2021 02:50 PM
बहुत सुंदर जी
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Swati Charan Pahari
28-Jun-2021 02:05 PM
बहुत सुंदर
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