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माँ

#लेखनी दैनिक काव्य प्रतियोगिता



जीवन की उलझनों में उलझी हूँ
कि तुमसे बात भी न कर पाऊं मैं
लिखने जो बैठी तुम पर कविता
तुम्हे सोचती ही रह जाऊं मैं

कभी ये अक्षर कह उठते कि
वो शब्द कहाँ से जोड़ें हम
जो माँ की महिमा को वर्णित कर दें
इतने योग्य कहाँ हैं हम

फिर भी शब्दों को समझाकर
उठाई है हाथों में कलम
पर देखो न,तुमको सोचते ही
भीगी मेरी पलकें, और आँखें हो गई हैं नम

कभी ये चंचल मन
बचपन की यादों में पहुंचा
गोदी में सिर रख के तुम्हारी
हर दुख चिंता को भूला

माँ याद है न ,ग्यारह साल की थी मैं,
जब पहली बार रोटी बनाई थी
हर रोटी के फूलने पर मैंने
खुश होके ताली बजाई थी

जब कहा ये कि माँ मुझपे
ये रंग कभी न फबता है
तो तुमने बताया वहम है ये
हर रंग तो सुंदर होता है

जब मेरे मन में किसी के लिए
ईर्ष्या, द्वेष ने पांव पसारे थे
तब तुम ही ने तो मेरे मन से
वो विषैले भाव उबारे थे

कभी जो भूल से भी
किसी की मैंने की बुराई
तुमने सदा ही समझाया
मेरी गलती मुझे बतलाई

जब भी कोई जानने वाले ने
मुझे संस्कारी कहके सराहा है
मुझे मुझमें माँ सच कहती हूँ
तुम्हारा अक्स नज़र आया है

है धन्यवाद, मैं कृतज्ञ हूँ
कभी ऋण ये चुका न पाऊंगी
हूँ भाग्यशाली,हर जन्म में मैं
बेटी आपकी बनना चाहूंगी


                      प्रीति ताम्रकार

                       जबलपुर

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10 Comments

नंदिता राय

10-May-2022 03:22 PM

बहुत खूब

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Neelam josi

09-May-2022 07:30 PM

Nice 👍🏼

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Reyaan

09-May-2022 04:47 PM

Very nice

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