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मज़ा

मैंने पूछा कोयल से पुकारती हो किसे 

गुनगुनाने लगी वो बहार में मज़ा है 

चले गए जो दूर किसी तलाश में 

उस महबूब के इंतज़ार में मज़ा है 


पतझड़ के दिन चार और चार बहारों के 

चार के बाद जो आते है चार में मज़ा है 

आंसुओ से सींची  है दिल की बंजर ज़मीं 

जलते दिल पे पड़ती इस फुहार में मज़ा है 


मुझमें कोई गुण तो नहीं जो उन्हें बाँध रखूं 

बड़े मज़बूत है वो धागे जिनके प्यार में मज़ा है 

कैद रखती जो उन्हें उड़ने का शौक न होता 

उनकी जीत में भी अपनी हार में  मज़ा है 


दो लफ़्ज काफी थे उन्हें अपना बनाने को 

फिर भी किए है जो सोलह श्रृंगार में मज़ा है 

'ग़ुलाम' तो लिखता है आँखों की स्याही से 

उसको तो अपने दिल ऐ बीमार का मज़ा है 

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17 Comments

Renu

13-May-2022 10:29 PM

बहुत खुब

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Ghulam Hazir hai

15-May-2022 08:02 AM

thanx

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Neha syed

13-May-2022 08:49 PM

👌👌

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Ghulam Hazir hai

15-May-2022 08:02 AM

thanx

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Fareha Sameen

13-May-2022 08:33 PM

Nice

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Ghulam Hazir hai

15-May-2022 08:02 AM

thanx

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