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गजल

जो भी मिलता हरेक शख्स नया पूछता था,
शबे-वस्ल का हर कोई मज़ा पूछता था।

मैंनें फ़रहाद को उसूले-मुहब्बत सिखाये थे,
मजनू मुझसे सेहरा का रास्ता पूछता था।

मुझसे ख़ैर-ओ-आफ़ियात की रग़बत रहती थी,
मेरे घर का पता बस हादसा पूछता था।

इस क़दर टूटा मैं के उस वाक़ए के बाद,
दिलचस्पी से हर कोई वो वाक़या पूछता था।

ज़माने भर में बे-हिसी क़ायम हो चली थी,
ज़माने भर का मोल एक मसख़रा पूछता था।

मुझे याद न था कुछ भी तेरे नाम के सिवा,
मुझसे कुछ ही और मिरा हाफ़िज़ा पूछता था।

मेरा मतला ही मेरा मुक़म्मल जवाब होता था,
सवाल यूँ तो मुझसे बहुत मिसरा पूछता था।

तारिक़ अज़ीम 'तनहा'
29/07/२०२२

# प्रतियोगिता हेतु 

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15 Comments

Pankaj Pandey

31-Jul-2022 08:24 PM

Nice 👍

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Rahman

30-Jul-2022 10:22 PM

Nyc

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Abhinav ji

30-Jul-2022 09:34 PM

Very nice👍

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