क्रांति🔥
तू यहां देखे जो हर रोज अपराध
छलनी क्यों ना हो सीना तेरा
अग्नि क्यों ना धधके सीने में तेरे
क्यों ठंडा पड़ा यहां हर अलाव
पत्थरों को रगड़ दो
धधकती चिंगारियों को छेड़ दो
पहुंचा दो मशालों तक
जलने दो उन्हें
अंधकार की लय को
रोशनी से बुझने दो
उठती क्रांति को तुम आवाज़ दो
करो एक लय में
चीख, पुकार, चीत्कार इतना कि
आवाजों से फट जाएं कानों के परदें
जो अब तक बहरे थे, अन्यायों की गूंज से।।
ना मूंदो तुम आंखो को अपनी
ना ही कानों को तुम बंद करो
अन्याय और जुल्मों को दो तुम जवाब
उन्हीं की भाषा में
हो उन्हें भी एहसास की
क्या होता है अन्याय सहने का अर्थ
उस हद तक उन्हें समझाओ
जब तक ना भर जाएं आत्मग्लानि तक।।
अन्याय को तोड़ दो
जुल्मों को सहना छोड़ दो
गर जो पड़े जरूरत
खड़ग तुम उठाओ
करने रक्षा इंसानियत की
इंसा को इंसा से बचाओ
अब बस एक बात तुम दोहराओ
मैं जो देखूं हर रोज अपराध
आंखे क्यों मैं मुंदू
मैं जलाऊं भीषण आग
जल जाए अपराध जो होकर ख़ाक।।
- कंचन सिंगला ©®
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Raziya bano
03-Aug-2022 08:55 AM
Nice
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Punam verma
03-Aug-2022 07:48 AM
Very nice
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Abhinav ji
03-Aug-2022 07:32 AM
Nice
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