स्वैच्छिक
🌹🌹🌹🌹ग़ज़ल 🌹🌹🌹🌹
मस्त दिन लगने लगे रातें सुहानी हो गईं।
आपसे दो चार बातें क्या ज़बानी हो गईं।
कोई ताज़ा ज़ख़्म सोचा हो तो मुझको दीजिए।
आप की पिछली निशानी सब पुरानी हो गईं।
आपके ह़स्ने अज़ल को देखते ही शर्म से।
गुल्सितां की सारी कलियाँ पानी-पानी हो गईं।
फ़िक्र की चादर वो औढ़े फिर रहा है हर घड़ी।
बच्चियाँ इक बाप की जब से सयानी हो गईं।
उनको ह़ासिल हो न पाया फिर सुकून ए ज़िन्दगी।
जिनपे नाज़िल आफ़तें कुछ आसमानी हो गईं।
फेसबुक पर डालते ही एक फोटो बाख़ुदा।
आप इक पल में कई रानों की रानी हो गईं।
जिसको भी देखो फ़राज़ अब पढ़ रहा है नेट पर।
दौर ए ह़ाज़िर में किताबें बेमअ़नी हो गईं।
सरफ़राज़ हुसैन फ़राज़ मुरादाबाद उ0 प्र0।
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Swati chourasia
13-Oct-2022 08:59 PM
बहुत ही सुंदर रचना 👌👌
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Sachin dev
13-Oct-2022 07:37 PM
Nice 👌🏻👌🏻
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Raziya bano
13-Oct-2022 07:23 PM
Bahut khub
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