Madhu varma

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लेखनी कविता -किसी का दीप निष्ठुर हूँ -महादेवी वर्मा

किसी का दीप निष्ठुर हूँ -महादेवी वर्मा 

शलभ मैं शापमय वर हूँ!
किसी का दीप निष्ठुर हूँ!

ताज है जलती शिखा;
चिनगारियाँ शृंगारमाला;
ज्वाल अक्षय कोष सी;
अंगार मेरी रंगशाला ;
नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ!

नयन में रह किन्तु जलती
 पुतलियाँ अंगार होंगी;
प्राण में कैसे बसाऊँ
 कठिन अग्नि समाधि होगी;
फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मन्दिर हूँ!

हो रहे झर कर दृगों से
 अग्नि-कण भी क्षार शीतल;
पिघलते उर से निकल
 नि:श्वास बनते धूम श्यामल;
एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ!

कौन आया था न जाने
 स्वप्न में मुझको जगाने;
याद में उन अँगुलियों के
 है मुझे पर युग बिताने;
रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ!

शून्य मेरा जन्म था,
अवसान है मुझको सबेरा;
प्राण आकुल से लिए,
संगी मिला केवल अँधेरा;
मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ!

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