Madhu varma

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लेखनी कविता -जीवन-मृतक का अंग -कबीर

जीवन-मृतक का अंग -कबीर 


'कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर ।
 तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर ,कबीर ॥1॥

जीवन तै मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ ।
 मरनैं पहली जे मरै, तो कलि अजरावर होइ ॥2॥

आपा मेट्या हरि मिलै, हरि मेट्या सब जाइ ।
 अकथ कहाणी प्रेम की, कह्यां न कोउ पत्याइ ॥3॥

 'कबीर' चेरा संत का, दासनि का परदास ।
 कबीर ऐसैं होइ रह्या, ज्यूं पाऊँ तलि घास ॥4॥

रोड़ा ह्वै रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान ।
 ऐसा जे जन ह्वै रहै, ताहि मिलै भगवान ॥5॥

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