Madhu varma

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लेखनी कविता - अफ़सोस कि दनदां का किया रिज़क़ फ़लक ने - ग़ालिब

अफ़सोस कि दनदां का किया रिज़क़ फ़लक ने / ग़ालिब


अफ़सोस कि दनदां का किया रिज़क़ फ़लक ने
जिन लोगों की थी दर-ख़ुर-ए-अक़्द-ए-गुहर अंगुश्त

काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त

लिखता हूं असद सोज़िश-ए दिल से सुख़न-ए गरम
ता रख न सके कोई मिरे हरफ़ पर अनगुशत

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