Madhu varma

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लेखनी कविता - मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर - ग़ालिब

मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर / ग़ालिब


मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर
रख ली मिरे ख़ुदा ने मिरी बेकसी की शर्म

वह हल्क़ा-हा-ए-ज़ुल्फ़ कमीं में हैं या ख़ुदा
रख लीजो मेरे दावा-ए-वारस्तगी की शर्म

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