लेखनी कविता -जो बात मेरे कान में ख़्वाबों ने कही है - बालस्वरूप राही
जो बात मेरे कान में ख़्वाबों ने कही है / बालस्वरूप राही
जो बात मेरे कान में ख़्वाबो ने कही है
वो बात हमेशा ही ग़लत हो के रही है ।
जो चाहो लिखो नाम मेरे सब है मुनासिब
उनकी ही अदालत है यहाँ, जिनकी बही है ।
टपका जो लहू पाँव से मेरे तो वो चीख़े
कल जेल से भागा था जो मुजरिम वो वही है ।
वो चाहे मेरी जीभ मेरे हाथ पर रख दे
मैं फिर भी कहूँगा कि सही बात सही है ।
इक दोस्त से मिलने के लिए कब से खड़ा हूँ
कूचा भी वही, घर भी वही, दर भी वही है ।
उम्मीद की जिस छत के तले राही रुका मैं
वो छत ही क़यामत की तरह सिर पे ढही है ।