लेखनी कविता - होकर अयाँ वो ख़ुद को छुपाये हुए-से हैं - फ़िराक़ गोरखपुरी
होकर अयाँ वो ख़ुद को छुपाये हुए-से हैं / फ़िराक़ गोरखपुरी
होकर अयाँ वो ख़ुद को छुपाये हुए-से हैं
अहले-नज़र ये चोट भी खाये हुए-से हैं
वो तूर हो कि हश्रे-दिल अफ़्सुर्दगाने-इश्क[1]
हर अंजुमन में आग
लगाये-हुए-से हैं
सुब्हे-अज़ल को यूँ ही ज़रा मिल गयी थी आंख
वो आज तक निगाह
चुराये-हुए-से हैं
हम बदगु़माने-इश्क तेरी बज़्मे - नाज से
जाकर भी तेरे सामने
आये-हुए-से हैं
ये क़ुर्बो-बोद[2] भी हैं सरासर फ़रेबे-हुस्ने
वो आके भी फ़िराक़ न आए-हुए-से हैं
शब्दार्थ
1. प्रेम में दुखी लोग
2. सामीप्य एवं दूरी