लेखनी कविता - कुछ ग़में-जानां,कुछ ग़में-दौरां - फ़िराक़ गोरखपुरी
कुछ ग़में-जानां,कुछ ग़में-दौरां / फ़िराक़ गोरखपुरी
तेरे आने की महफ़िल ने जो कुछ आहट-सी पाई है,
हर इक ने साफ़ देखा शमअ की लौ थरथराई है.
तपाक और मुस्कराहट में भी आँसू थरथराते हैं,
निशाते-दीद१ भी चमका हुआ दर्दे-जुदाई है.
बहुत चंचल है अरबाबे-हवस२ की उँगलियाँ लेकिन,
उरूसे-ज़िन्दगी३ की भी नक़ाबे-रूख४ उठाई है.
ये मौजों के थपेड़े,ये उभरना बहरे-हस्ती५ में,
हुबाबे-ज़िन्दगी६ ये क्या हवा सर में समाई है?
सुकूते-बहरे-बर७ की खलवतों८ में खो गया हूँ जब,
उन्हीं मौकों पे कानों में तेरी आवाज़ आई है.
बहुत-कुछ यूँ तो था दिल में,मगर लब सी लिए मैंने,
अगर सुन लो तो आज इक बात मेरे दिल में आई है.
मोहब्बत दुश्मनी में क़ायम है रश्क९ का जज्बा,
अजब रुसवाइयाँ हैं ये अजब ये जग-हँसाई है.
मुझे बीमो-रज़ा१० की बहसे-लाहासिल११ में उलझाकर,
हयाते-बेकराँ१२ दर-पर्दा क्या-क्या मुस्कराई है.
हमीं ने मौत को आँखों में आँखे डालकर देखा,
ये बेबाकी नज़र की ये मोहब्बत की ढिठाई है.
मेरे अशआर१३ के मफहूम१४ भी हैं पूछते मुझसे
बताता हूँ तो कह देते हैं ये तो खुद-सताई१५ है.
हमारा झूठ इक चूमकार है बेदर्द दुनिया को,
हमारे झूठ से बदतर जमाने की सचाई है.
१. देखने की खुशी २. लालच ३. जीवन रूपी दुल्हन ४. घूँघट ५. जीवन-सागर
६. जीवन रूपी बुलबुला ७. धरती का मौन ८. एकांत ९. ईर्ष्या १०. भय और ईश्वरेच्छा
११. व्यर्थ की बहस १२. अथाह जीवन १३.शे'र १४.अर्थ १५.खुद की प्रशंसा