Madhu varma

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लेखनी कविता -यात्री-मन - जगदीश गुप्त

यात्री-मन / जगदीश गुप्त


छल-छलाई आँखों से
जो विवश बाहर छलक आए
होंठ ने बढ़कर वही
आँसू सुखाए
सिहरते चिकने कपोलों पर
किस अपरिभाषित
व्यथा की टोह लेती
उंगलियों के स्पर्श गहराए।

हृदय के भू-गर्भ पर
जो भाव थे
संचित-असंचित
एक सोते की तरह
फूटे बहे,
उमड़े नदी-सागर बने
फिर भर गए आकाश में
घुमड़ कर
बरसे झमाझम
हो गया अस्तित्व जलमय

यात्रा पूरी हुई, लय से प्रलय तक,
देहरी से देह की चलकर, हृदय तक।

एक दृढ़ अनुबंध फिर से लिख गया।
डूबते मन को किनारा दिख गया ।।

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