Madhu varma

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लेखनी कविता - घाटी की चिन्ता - जगदीश गुप्त

घाटी की चिन्ता / जगदीश गुप्त


सरिता जल में
पैर डाल कर
आँखें मूंदे, शीश झुकाए
सोच रही है कब से

बादल ओढ़े घाटी।

कितने तीखे अनुतापों को
आघातों को
सहते-सहते
जाने कैसे असह दर्द के बाद-
बन गई होगी पत्थर
इस रसमय धरती की माटी।

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