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Coffee Wali Chay

'वक़्त'... आपने नाम तो सुना ही है। कितना निष्ठुर, कितना निर्दयी, कितना खुदगर्ज़ होता है। अपने ही चाल में मस्त मलंग बस चलता जाता है... चलता जाता है... चलता जाता है....। इस बेपरवाह अमूर्त प्राणी (मैं समय को प्राणी ही कहूंगी क्योंकि,) को कोई परवाह नहीं कि इसके विशाल पैरों के नीचे कितने लोग दबते कुचलते जा रहे है, कितनी ज़िन्दगियाँ ख़त्म हो रही है, कितने रिश्ते टूट कर बिख़रते जा रहे है, कितने ही ऐसे कमज़ोर है, जो चलना तो चाहते है इसके साथ, लेकिन उनकी किस्मत कुपोषण का शिकार है, अतः अभागे पीछे ही छूट जाते है, लेकिन मज़ाल है!! जो यह वक़्त पीछे पलट कर उन्हें एक नज़र देख ले। उन पर सहानुभूति जता दे... नहीं! कदापि नहीं। इतिहास हो या विज्ञान हो, चाहें वेद हो या पुराण... किसी ने भी वक़्त के रहमदिल की पुष्टि नहीं की है क्योंकि सभी को यह विदित था कि, इस अमूर्त प्राणी को बनाया ही बेरहमी की मिट्टी से गया है। वह मिट्टी जो पहले पाषाण था, सैकड़ों अब्द में वह कुछ कुछ मिट्टी सा बन पाया। तो रिश्तों के उसूल व नाजुकता को परिभाषित करने के साथ ही वक़्त के इस खुदगर्ज़ी का हाल सुनाएगी मेरी कहानी "कॉफ़ी वाली चाय"। 'कॉफ़ी वाली चाय' एक ऐसा उपन्यास नहीं, जो मात्र कॉफ़ी अथवा चाय के ही इर्दगिर्द घूमता हो, वरन यह ऐसी कहानी है जो आपके रिश्ते, वक़्त व ज़िंदगी को परिभाषित कर आपको आपके रिश्तों की व्याख्या समझाती है। एक कहानी... जिसमें जीवन है, एहसास है, अनुभव है। जो आपको कहीं गुदगुदाएगी, कहीं रुलायेगी, कहीं रोएं खड़े कर देगी, तो कहीं रोमांचित हो उठेंगे आप। वक़्त की इस बेरुखी और रिश्तों के बदलते सिलसिले को आप नज़दीक से देख पाएंगे। एक इंसान जन्म से लेकर मरण तक क्या खोता है.. क्या पाता है... और अंत में उसके समक्ष उसके हिस्से में क्या बच जाता है। इस कहानी का कोई न कोई हिस्सा आप अपने आप और अपनी ज़िंदगी से ज़रूर जोड़ पाएंगे। यक़ीनन ये कहानी आपको बहुत कुछ सिखायेगी, आपके मुरझाये रिश्तों में प्राण फूंक जायेगी... रिश्तों को निभाने का अदब बताएगी।

आँचल सोनी 'हिया'

आँचल सोनी 'हिया' साहित्य क्षेत्र की उभरती लेखिका हैं। एक पाठिका के रुप में अनेक विधाओं को पढ़ते पढ़ते एक भावुक मन कब लेखन की ओर मुड़ चला, इन्हें भी पता नहीं चला। इक्कीस वर्षीय आँचल वैसे तो इक्कीसवीं सदी की लेखिका हैं फिर भी ये पुरानी किताबें पढ़ने की निहायत शौक़ीन हैं। लिहाजा इनके उपन्यास की भाषा व शब्दों में कई बार बीते समय की सौंधी खुशबू सहज ही दिखाई पड़ जाती है। चाहे बात भाषा की हो, या रिश्तों के अदब की, इन्हें सभी मामलों में गुज़रा हुआ दौर बेहद पसंद है। इन्हें इस बात का थोड़ा मलाल भी है कि ये उस दौर को मात्र पढ़ पाई हैं, जी नहीं पाईं। उनका यह उपन्यास वास्तविकता के बेहद करीब है। मात्र कल्पनाओं तक सीमित रहने वाला काल्पनिक लेखन इन्हें प्रिय नहीं। ईमेल: aanchalsoni13@gmail.com

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