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निराशावादी -रामधारी सिंह दिनकर पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी, बाकी न सितारे बचे ...