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साँझ-2 / जगदीश गुप्त घन-छाया में सोती हों, ज्यों श्रमित अमा की रातें। वह केश-पाश बेसुध सा, करता समीर से बातें।।१६।। या भूल गये हो निज को, अपनी सीमा से बढ़कर। ...