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साँझ-9 / जगदीश गुप्त नन्हीं-नन्हीं बँूदों से, शीतलता बिखर रही थी। निमर्ल जल से घुल-घुल कर, हिरयाली निखर रही थी।।१२१।। झुक गई दूब की पलकें, आँसू का भार सम्हाले। पागल समीर ...