लेखनी कविता - साँझ-10 - जगदीश गुप्त

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साँझ-10 / जगदीश गुप्त ऊषा के स्िमत-िइंिगत की, गति से हिल उठीं हिलोरें। किरनों के अनुशासन में, सन गई जलद की कोरें।।१३६।। मेरे प्रसुप्त पौरूष में, तुम प्रकृति बने मुसकाये। जग ...

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